इकाई :1
वीरगथा साहित्य की विशेषताएं ।
Learning Outcomes / अध्ययन परिणाम
|
Prerequisite / पूर्वापेक्षा
आदिकाल हिंदी साहित्य के आरम्भिक काल है । डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदीजी ने इस काल को आदिकाल संज्ञा दिया है । लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने अपने इतिहास ग्रंथ में इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है । वीरगाथा का अर्थ है, वीरता की कहानियां । इस काल के समय सीमा काे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संवत 1050 से लेकर संवत 1375 तक मानी है । इस समय रासो साहित्य, सिध्द साहित्य, जैन साहित्य और नाथ साहित्य मिलता है और मुक्तक रचनाएँ भी मिलती है । वीरगाथा काल के अधिकांश कवियों ने अपभ्रंश भाषा को मुख्य भाषा बनाया है। इस काल के कवियों ने वीररस एवं श्रंगार रस को प्रधानता दिया है । |
Key Themes / मुख्य प्रसंग
वीर -रस प्रधान रचनाओं की बहुलता ।
वीर और श्रृंगार रस की प्रधानता
रासो काव्य की श्रेष्ठता ।
काव्य में राष्ट्रीय भावना का अभाव ।
अपभ्रंश भाषा को साहित्यक भाषा के रूप में प्रयोग ।
पहला महाकाव्य पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता के बारे में मतभेद ।
Discussion / चर्चा
आचार्य शुक्ल जी ने आदिकाल को वीरगाथा काल नाम दिया । शुक्ल जी ने बताया था कि जिस कालखंड के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पडी है ,वह एक अलग काल माना गया है ,और उसका नामकरण उन्हीं रचनाओं के अनुसार किया गया है । शुक्ल जी ने उस काल में प्राप्त बारह (12) ग्रंथों के आधार पर प्रारंभिक काल को वीरगाथा काल नाम दिया था ।इनमें चार (4) अपभ्रंश रचनाएँ और आठ (8) हिंदी रचनाएँ भी है ।आदिकालीन वीरगाथात्मक रचनाओं की प्रमुख प्रवृत्तियाँ :-
2.1.1 आदिकालीन वीरगाथात्मक रचनाओं की प्रमुख प्रवृत्तियाँ :-
ऐतिहासिकता का अभाव
वीरगाथा काल के कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का वर्णन किया है । वे अपनी कल्पना के बल से अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन किया है । इसलिए इसमें ऐतिहासिक तथ्य एवं सत्यता की कमी है । इन कवियों के काव्यों के नायक ऐतिहासिक है । लेकिन घटनाओं के क्रम, विभिन्न नामावली, संवत तथा तिथियाँ आदि बात संदिग्ध है । ऐतिहासिकता का अभाव वीरगाथा काल के कृतियों में स्पष्ट दिखाई देता है ।
आश्रयदाताओं की प्रशंसा
वीरगाथाकालीन साहित्य के अधिकांश कवि राजाश्रित थे । वे अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा करते थे । इससे इन्हें मान एवं धन की प्राप्ति होती थी । इस काल के कवियों ने आश्रयदाताओं का भावनापूर्ण तथा अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन किया है । कवियों ने अपने-अपने राजाओं को देवी-देवताओं से भी श्रेष्ठ बताया है । स्पष्ट मालूम होता है कि इन कवियों ने अपनी आमदनी तथा स्वार्थता हेतु अपने आश्रयदाताओं की झूठी प्रशंसा की है । कवियों ने राजाओं की धर्म-कर्म वीरता, शौर्य, प्रसिद्धि, ऐश्वर्य आदि का आश्चर्यचकित वर्णन किया है ।
संदिग्ध रचनाएँ
वीरगाथा काल के रासो ग्रंथों में मुख्यतः सत्यता का अभाव दृष्टिगोचर है । इसमें कालक्रम, रचना काल, घटनाक्रम आदि में संदिग्धता दिखाई देती है । कवियों ने भावना तथा अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन रीति स्वीकार किया है । इसमें भाषा, प्रसंगों, पात्रों तथा संवत तिथियों में गलती पायी जाती है । इसलिए वीरगाथकाल के कृतियों को संदिग्ध रचनाएँ कहा जाता है ।
पृथ्वीराज रासा
वीरगाथकाल की प्रमुख रचना पृथ्वीराज रासो है । यह पृथ्वीराज चौहान के चरित्र पर आधारित है । इसके रचयिता कवि चंदवरदाई है । विद्वानों के मत में इसमें समय -समय पर परिवर्तन हुआ है । इसलिए पृथ्वीराज रासो को आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ.सुनितिकुमार चटर्जी जैसे विद्वान अप्रामाणिक रचना मानते है । और इसे कुछ विद्वानों अर्धप्रामाणिक मानते है ।डॉ: श्याम सुन्दनर दास, डॉ : विपिन कुमार आदि विद्वनों ने प्रामाणिक माना ,वैसे वीरगाथा काल के बीसलदेव रासो, विजयपाल रासो, परमाल रासो, खुमान रासो, हम्मीर रासो आदि रासो ग्रंथ भी संदिग्ध माने जाते हैं ।
संकुचित राष्ट्रीयता
वीरगाथाकालीन रचनाओं में राजाओं की वीरता एवं युद्धों का वर्णन अधिकांश पाया जाता है । इसमें राष्ट्रीयता का पूर्ण रुप से अभाव देखने को मिलता है । उस काल में कुछ गाँव, कुछ प्रांत अथवा छोटे-छोटे राज्यों को ही राष्ट्र माना जाता था । वहाँ के राजाओं अपना सम्राट मानते थे । इन राजाओं के बीच कारण-अकारण समय- असमय पर युद्ध होते थे । युद्ध का मुख्य कारण सुंदरियाँ, राज्य विस्तार, धन प्राप्ति आदि है । मालूम होता है कि इस काल के राजा तथा उनके कवि पूरे भारत को एक राष्ट्र नहीं मानते थे । इसलिए वीरगाथा काल के कवियों के रचनाओं में संकुलित एवं स्वार्थपरता पूर्ण राष्ट्रीयता दृष्टिगोचर हैं ।
युद्धों का वर्णन
वीरगाथा काल में छोटे-छोटे राज्य के राजा समय-समय पर युद्ध करते थे । कभी-कभी युद्ध में आश्रयदाता राजाओं के साथ कवि भी तलवार लेकर युद्ध में उतरते थे । तात्पर्य यह है कि कवियों ने युद्धों को अपनी आँखें से देखा था । इसी कारण इन कवियों ने सेना-बल, युद्ध सामग्री, योद्धाओं के भाव, उत्साह-निरुत्साह आदि तथा विविध मानसिक दशाओं का सजीव वर्णन किया है । युद्ध प्रसंगों में कवियों ने कल्पना को स्वीकारा है । हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल में युद्धों का आँखों देखा जितना वर्णन मिलता है उतना और किसी काल में नहीं मिलता है । ऐसे प्रसंगों में वीर मुख्य रस बना है तथा अतिशयोक्ति अलंकार उसका सहचर हुए है ।
प्रकृति चित्रण
वीरगाथा काल के साहित्य में युद्धों एवं सुंदरियों का वर्णन ही प्रचुर होने से प्रकृति चित्रण नाम मात्र हो गया है । इस काल के कृतियों में प्रकृति के विभिन्न रुपों का वर्णन नहीं पाया जाता है । इन काव्यों में यत्र-तत्र प्रकृति चित्रतण मिलता है । किन्तु यह चित्रण आलम्बन तथा उद्दीपन रुपों में ही है ।पृथ्वीराज रासो में नगर, नदी, पर्वत उपवन आदि का वर्णन काफी मनोरम है । कहीं-कहीं राज्य, नगर, पंछी आदि का वर्णन हुआ है । प्रकृति चित्रण सामान्यत: नीरस और उबाऊ है ।
आश्रयदाताओं की अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशंसा : –
वीरगाथा काल की कवियों के मुख्य उद्देश्य राजाश्रय पाना था । इसके लिए वे राजाओं की झूठी प्रशंसा करते थे । इसी कारण कारण इस काल का रासो साहित्य दरबारी साहित्य माना जाता है ।अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने केलिए वह वास्तविक और अवास्तविक सभी प्रकार। की रघटनाओं का वर्णन करता था । इन अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनों का केन्द्र आश्रयदाता ही हुआ करता था ।
किसी भी कवि की दृष्टि सामान्य जन जीवन पर नहीं पड़ी । यही कारण वीरगाथा काल की रचनाएँ जन जीवन से दूर रहे ।
डिंगल एवं पिंगल भाषा का उपयोग
वीरगाथाकालीन कृतियों में राज्यस्थानी मिश्रित अपभ्रंश- डिंगल भाषा का ज्यादा प्रयोग हुआ है। पृथ्वीराज रासो, परमाल रासो,बीसलदेव रासो, खुमान रासो आदि इस काल के रासो ग्रंथ में डिंगल भाषा का उपयोग ज्यादा पाया जाता है । इसका यह भी कारण होगा कि वीर रस के सख्त भावों को व्यक्त करने के लिए डिंगल भाषा समुचित होता था । डिंगल को उँचे स्वर में पढ़ना पड़ता था । वीरगथा काव्यों की भाषा प्रमुख रूप से डिंगल है तथापि कवियों ने पिंगल भाषा का प्रयोग भी किया है ।
काव्यों के दो रुप
आदिकालीन या वीरगाथाकालीन काव्य कृतियों में दो रुप देखने को मिलते हैं । पहला प्रबंध काव्य है, जिसके अंतर्गत महाकाव्य तथा खंडकाव्य आते हैं । दुसरा रूप मुक्तक काव्य है । यह कथा विरहित तथा अल्प स्वरूप का होता है । प्रबंध काव्य या महाकाव्य में सर्ग या अध्याय होते है । वीरगाथा कालीन महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में 69 समय (अध्याय) है । बीसलदेव रासो मुक्तक काव्य हैं । इसमें कथा निर्वाह अवश्य है, किन्तु इसकी प्रकृति मुक्तक काव्य का है ।
कल्पना की विविधता
आदिकालीन या वीरगाथाकालीन काव्य कृतियों में ऐतिहासिकता कम है, कल्पनाशीलता अधिक लगता है । सभी कवियों ने ऐतिहासिक व्यक्ति को पात्र तो लिए है, किंतु बाकी काल्पना के अनुसार किया है । इसलिए काल का धड़कन समझने को असमर्थ हो जाता है ।
वीर तथा श्रृंगार रस
वीरगाथाकालीन साहित्य में वीर तथा श्रृंगार रस मुख्य रही है । युद्ध वर्णनों के प्रसंगों में वीर रस भारी मात्रा में पाया जाता है । वीर रस के साथ भयानक, अद्भुत, वीभत्स रासों का सुन्दर परिपाक मिलता है। इनके साथ ही ये कवि अपने आश्रयदाता के विलासी जीवन को उद्दीप्त करने केलिए श्रृंगार रस के वर्णन भी खूब करते थे । चारण कवियों ने सुंदरियों का रुप वर्णन, नखशिख वर्णन, संयोग एवं वियोग वर्णन का सहारा लिया है । युद्ध के समय वीर और शान्ती के समय श्रृंगार इन कवियों के मुख्य रस थे ।चारण काव्य और तथा मैथिल कोकिल विद्दापति की पदावली, कीर्ति लता आदि में श्रृंगार रस की आधिक्य दिखाई देती है ।
छंदों का प्रयोग
वीरगाथा काल में बहुत से छन्दों के सम्यक प्रयोग मिलता है ।आदिकाल या वीरगाथा काल के रासो साहित्य में दोहा, गाथा, रोला, तोमर,तोटक, कुण्डलिया,उल्लाला, साटक, आर्या जैसे विभिन्न छंदों का उपयोग हुआ है । छंदों की बहुलता दिखाई देने वाली एकमात्र रचना पृथ्वीराज रासो है । पृथ्वीराज रासो में 68 छन्दों का प्रयोग मिलता है । पृथ्वीराज रासो में तो भावों के अनुकूल छन्द विधान हैं ।
अलंकारों का समावेश
वीरगाथाकालीन साहित्य में अलंकारों का उपयोग बड़ी मात्रा में पाया जाता है । इस काल के कवियों ने अतिशयोक्ति,उत्प्रेक्षा, यमक,उपमा,रूपक,वक्रोक्ति, अनुप्रास आदि अलंकारों का अच्छा उपयोग किया है ।
काव्य शैली
वीरगाथाकालीन काव्य में विविध प्रकार के नृत्य, गीत एवं अभिनय के चित्रण मिलते थे । इसलिए इसमें रासो शैली के सिवा फागु काव्य शैली भी दिखाई देती है । इस काल के कुछ रचनाएँ प्रबंधात्मक है तो और कुछ मुक्तक शैली में मिलती है । उपदेश-रसायन-रास,भरतेश्वर-बाहुबलीरास, चंदनबालारास,रेवंतगिरी आदि गीत नृत्यपरक रचनाओं के अंतर्गत आते हैं।
वीरगाथात्मक काव्य परंपरा का विकास परवर्ती हिंदी साहित्य में हूआ ।मध्यकाल में पिरथीराज राठौड़ ,दुरसाजी ,बांकीदास, सूर्यमल्ल मिश्रण आदि की रचनाएं डिंगल भाषा में वीरगाथाएं ही प्रस्तुत करती है ।
चर्चा के मुख्य बिंदु
वीरगाथा काल नामकरण की समस्या ।
वीर और श्रृंगार रस की बहुलता ।
राष्ट्रीय भावना का अभाव ।
रचनाओं के प्रामाणिकता और अप्रमाणिकता संबन्धित मतभेद ।
Critical Overview / आलोचनात्मक अवलोकन
आदिकालीन या वीरगाथाकालीन रचनाओं में जन जीवन का चित्रण दिखाई नहीं देता है । काव्य में प्रजा के लिए स्थान नहीं है, राजा का स्थान सर्वोपरि है । इस समय के काव्यों में राजाओं की प्रशंसा तथा सुंदरियों का श्रृंगार वर्णन प्रबल है । मुख्य रस वीर तथा श्रृंगार है । इस समय काव्य मुख्यतः प्रबंधात्मक तथा मुक्तक रुप में दिखाई देता है । कवियों ने डिंगल-पिंगल भाषा का प्रयोग किया है । वीरगाथाकालीन काव्य में छंद और अलंकारों की विविधता पायी जाती है । कल्पना की व्यापकता इस काल के कृतियों में दृष्टिगोचर होती है ।
Recap / पुनरावृत्ति
|
Objective Questions / वस्तुनिष्ट प्रश्न
1. प्रारंभिक काल को आचार्य शुक्ल जी ने क्या नाम दिया ? |
Answers / उत्तर
1. वीरगाथाकाल । 8. पृथ्वीराज रासो । |
Assignment / प्रदत्तकार्य
|
Self Assesment / आत्म मूल्याकन
|