इकाई : 2
संत काव्य परंपरा , संत कवि और विशेषताएँ
Learning Outcomes / अध्ययन परिणाम
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Prerequisites / पूर्वापेक्षा
संत काव्य परंपरा में अध्यात्मिक विषयों की अभिव्यक्ति हुई हैं | संत काव्य परंपरा जन – जीवन में व्याप्त अनुभूतियों से संपन्न हैं | संत काव्य ने अनेक धार्मिक संप्रदायों के प्रभाव को आत्मसात किया है | |
Key Themes / मुख्य प्रसंग
दार्शनिक और कवि ।
निर्गुण-निराकार ब्रह्म की अवधारणा ।
गुस्र् महिमा ।
धार्मिक भावना उदार है, जो मानवतावाद पर आधारित है ।
साखी का अर्थ है साक्षी, सबद का अर्थ है शब्द और रमैनी का अर्थ है रामायण ।
कबीर की भाषा सधुक्कडी पंचमेल खिचड़ी नाम में भी जाने जाते हैं ।
कबीर के अनुयायियों को कबीर पंथी कहते हैं ।
वाणी के डिक्टेटर ।
4.2 Discussion / चर्चा
4.2.1 संत काव्य परंपरा
संत काव्य परंपरा के भक्त-कवि निर्गुणवादी थे। वे गुरु को बहुत सम्मान देते थे तथा जाति-पाँति के भेदों को अस्वीकार करते थे। वैयक्तिक साधना पर वे बल देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का वे विरोध करते थे। लगभग अधिकांश संत लोग अनपढ़ थे | परंतु अनुभव की दृष्टि से समृध्द थे। प्रायः सब सत्संगी थे और उनकी भाषा में कई बोलियों का मिश्रण पाया जाता है इसलिए इस भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा गया है। साधारण जनता पर इन संतों की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा है।
4.2.2 प्रमुख संत-कवि
इन संतों में प्रमुख कबीरदास थे। अन्य मुख्य संत-कवियों के नाम हैं – नानक, रैदास, दादूदयाल, सुंदरदास तथा मलूकदास। शांकर अद्वैतवाद में भक्ति को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है, किन्तु उसे साध्य नहीं माना गया है। संतों ने (सूफियों ने भी) भक्ति को साध्य माना है।
शांकर अद्वैतवाद में मुक्ति के प्रत्यक्ष साधन के रूप में ‘ज्ञान’ को ग्रहण किया गया है। वहाँ मुक्ति के लिए भक्ति का ग्रहण अपरिहार्य नहीं है। वहाँ भक्ति के महत्व की सीमा प्रतिपादित है। वहाँ भक्ति का महत्व केवल इस दृष्टि से है कि वह अन्तःकरण के मालिन्य का प्रक्षालन करने में समर्थ सिद्ध होती है। भक्ति आत्म-साक्षात्कार नहीं करा सकती, वह केवल आत्म साक्षात्कार के लिए उचित भूमिका का निर्माण कर सकती है। संतों ने अपना चरम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार या भगवद्-दर्शन माना है तथा भक्ति के ग्रहण को अपरिहार्य रूप में स्वीकार किया है क्योंकि संतों की दृष्टि में भक्ति ही आत्म-साक्षात्कार या भगवद्दर्शन कराती है।
कबीर मूल रूप से संत एवं समाज सुधारक है, वे बाद में कवि के रूप में विख्यात हुए हैं । उनकी वाणियों में अनुभूति पक्ष सबल है, अभिव्यंजन पक्ष दुर्बल । उन्होंने जगह-जगह पर प्रेम के महत्व को समझाया है । उन्होंने स्पष्ट किया है कि स्थायी प्रेम के बिना सारा ज्ञान व्यर्थ है । वे समझते थे कि घमंड व अहंकार सच्चा प्रेम का घातक है ।
कबीर की भाषा साहित्यिक नहीं है, तत्कालीन जनभाषा है । जन-जीवन को प्रतिबिंबित करने के लिए उन्होंने ग्राम्य भाषा को अपनाया । कबीर घुमक्कड़ स्वभावी थे । इसलिए उनकी भाषा में अलग-अलग प्रदेशों के शब्द पाया जाता है । उसमें अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, राजस्थानी, पंजाबी, पूर्वी हिंदी, अरबी, फारसी आदि कई भाषा के शब्द पाये जाते हैं। इस मिश्रित जनभाषा खिचड़ी या सधुक्कड़ी नाम से जानी जाती हैं ।
कबीर की भाषा को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सधुक्कड़ी नाम दे कर पुकारा है । यह सधुक्कड़ी नाम से ख्याति पायी है । कबीर ने साखी, दोहा और चौपाई शैली में रचनाएँ की है । यमक, रूपक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंकारों का अच्छा प्रयोग उन्होंने किया है । कबीर की भाषा वर्णनात्मक, चित्रात्मक, प्रतीकात्मक, भावनात्मक होता है । भाषा पर उसका अपरिमित अधिकार है । इसलिए डॅा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को भाषा के डिक्टेटर विशेषण दिया है।
कबीरदास ने अपने वाणियों में बार-बार राम शब्द का प्रयोग किया है । किंतु उसका राम अयोध्या के नरपति दशरथ पुत्र श्रीराम नहीं है, उनका राम निराकार परमात्मा है । उनके राम का कोई रूप नहीं है, अरूपी है । किंतु वह सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापी संचालक है । कबीरदास ने जाति और धर्म के नाम पर चलने वाले अंधविश्वासों, अनाचारों एवं आडंबरों का विरोध किया था । जब-जब वे बुराई देखते थे, तब-तब वे निर्भय-निडर एवं साहसी बन जाते थे । कबीर मानव-स्नेही होने के नाते मनुष्य को धर्म व जाति के आधार पर कभी नहीं बांटा है|
कबीर मानवतावादी, बुद्धिमान विचारक और दार्शनिक-संत है । वे मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते है । वे स्त्री और पुरुष के रूप में केवल दो ही जाति को मानते हैं । उनकी राय में बाकी सब जाति मनुष्य निर्मित है । मनुष्य निर्मित धर्म व जाति को कबीर नहीं मानते थे । वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें ऊंच-नीच तथा अमीर-गरीब भेदभाव न हो, ब्राह्मण-शूद्र भेद भी नहीं थे । कबीर भक्त अवश्य है । किंतु वे ब्रह्मा को किसी रूप व आकृति में नहीं स्वीकारते है । उनकी परमात्मा निराकर व रूपहीन है, जो सर्वत्र व्याप्त और सर्वशक्तिमान है । कबीर सच्चे मन से परमात्मा का नाम स्मरण करना ही श्रेष्ठ भक्ति मानते हैं । वे जप, तप, माला जपना, शरीर पर भस्म लगाना, व्रत रखना, तीर्थ यात्रा करना आदि को बाह्यडंबर कहकर विरोध किया है । कबीर ने अपनी कविता को समाज-सुधार का माध्यम बनाया है । सामाजिक पुनर्निर्माण उनका लक्ष्य रहा था । वे अपने कलम को तलवार और स्याही को गोली समझते थे ।
कबीर की दृष्टि में विषय वासना या मोह-माया परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है । वे भौतिक सुख को माया जाल समझते थे । वे स्वयं मोह-माया छोड़ा था, दूसरों को ऐसी मोह-माया छोड़ने की आह्वान भी कई बार प्रकट की है । नारी के प्रति कबीर का मनोभाव उदार है । किंतु उनके उस दृष्टिकोण को व्यापक कहना उचित नहीं है । क्योंकि कबीर मूल रूप में संत है । वे मानते थे कि पुरुष, नारी-मोह या विषय-वासना में गिर पड़ता तो उसके लक्ष्य प्राप्ति में बाधा पड़ जाता । इसलिए जगह-जगह पर उन्होंने नारी को छोड़ने का उपदेश दिया है । उन्होंने नारी को कामिनी इसलिए बताया है कि उनकी आदर्श और स्वभाव संत के अनुकूल थे । यह ध्यान देना योग्य है कि अधिकांश संतों ने स्त्री को भक्ति और मुक्ति यात्रा में बाधा डालने वाली माया के रूप में ही देखा है ।
चर्चा के मुख्य बिंदु
कबीर मूल रूप से संत एवं समाज सुधारक है, वे बाद में कवि के रूप में विराजमान है ।
कबीर भक्त अवश्य है , किंतु वे ब्रह्मा के किसी रूप या आकृति को स्वीकारते नहीं है ।
Critical Overview / आलोचनात्मक अवलोकन
संत कबीर युग स्रष्टा और युगांतरकारी महात्मा हैं।उसके मुंह से समय-समय पर निकली हुई वाणी लाखों-करोड़ों निर्बल दिलवालों को आत्म बल प्रदान कर देती है। कबीर कभी भी और कदापि क्षणिक और काल्पनिक जगत के यात्री न थे । उन्हें मालूम था कि भौतिक तथा मोह-माया से मिलने वाला आनंद व सुख क्षण भंगुर है । शाश्वत आनंद या सुख भगवत कृपा से उपलब्ध है ।
Recap / पुनरावृत्ति
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Objective Questions / वस्तुनिष्ट प्रश्न
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Answer / उत्तर
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Assignment / प्रदत्तकार्य
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Self Assesment / आत्म मूल्याकन
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