इकाई : 4
आदिकालीन हिंदी साहित्य की मुख्य विशेषताएं
Learning Outcomes / अध्ययन परिणाम
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Prerequisites / पूर्वापेक्षा
हिन्दी साहित्य के प्रथम काल “आदिकाल” में विभिन्न प्रकार के साहित्य देख सकते हैं । इनमें विभिन्न प्रवृतियों का समावेश भी मुखरित हैं । आश्रेयदाताओं की प्रशंसा, युद्धों का वर्णन, वीररस की प्रधानता, प्रेम और श्रृंगार का वर्णन आदि विभिन्न प्रवृत्तियाँ आदिकालीन साहित्य की विशेषताएँ हैं । इन प्रवृतियों के आधार पर अधिकांश विद्वान उपलब्ध रचनाओं की प्रामाणिकता पर विचार प्रकट किए हैं । इसलिए इन रचनाओं और प्रवृत्तियों के अध्ययन के बिना आदिकाल का अध्ययन अधूरा है । |
Key Themes / मुख्य प्रसंग
काल-विभाजन
काल विभाजन से संबन्धित विद्वानों के मत एवं मत भेद ।
सिद्ध ,नाथ, और जैन साहित्य की प्रवृत्तियॉ ।
रासो साहित्य की मुख्य विशेषताएं ।
चारण साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियॉ ।
Discussion / चर्चा
हिन्दी साहित्य के इतिहास को विद्वानों ने चार कालों में विभाजित किया है –
- आदिकाल या वीरगाथा काल – (संवत् 1050 से 1375 तक)
- पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल – (संवत् 1375 से 1700 तक)
- उत्तर मध्यकाल या रीति काल – (संवत् 1700 से 1900 तक)
- आधुनिक काल या गद्य काल – (संवत् 1900 से आज तक)
1.4.1 रचना-प्रक्रिया व स्वभाव के अनुसार आदिकाल में निम्न लिखित प्रकार के साहित्य उपलब्ध है :-
- सिद्ध साहित्य
- नाथ साहित्य
- जैन साहित्य
- रासो साहित्य
- चारण साहित्य
- लौकिक साहित्य
1.सिद्ध साहित्य
सिद्ध साहित्य का समय अपभ्रंश से हिन्दी की ओर का विकास काल है । सिद्धों तथा नाथों ने साहित्य को अपना आदर्श-प्रचार का उत्तम उपाय मान लिया है । सिद्ध साहित्य भक्तिकाल के सगुण और निर्गुण भक्त कवियों को प्रभावित किया है ।
बुद्ध धर्म के वज्रायन शाखा के चौरासी संतों को सिद्ध मानी जाती हैं । इसमें सबसे प्रसिद्ध एवं सर्वप्रथम सिद्ध सरहपा है । सरहपा, शबरपा, लुइपा, कण्हपा आदि प्रमुख सिद्धद कवियां है ।समय की दृष्टि से इनमें सरहपा ही सबसे प्राचीन हैं ।
सिद्ध कवियों ने समाज की झूठी मान्यताओं के प्रति अक्रोश व्यक्त किया ,साथ ही सद्कार्यों और सद्विचारों को अपनाने का उपदेश दिया । सरहपा दान और परोपकार का उपदेश देते हैं :-
` पर आर ण किअऊ अत्थि ण दीअउ दाण ।
एहु संसार कवणु फलु वरु छड्डहु अप्पाणु ।। `
सिद्धों की काव्य भाषा अपनी रहस्यात्मकता के कारण ‘सन्ध्या भाषा ‘ या संधा भाषा कही गयी है । दोहाकोश, गीति, चर्यगीति, उपदेश, अजव्रज आदि सुप्रसिद्ध सिद्ध कवि सरहपा की कृतियाँ है । शबरपा की कृतियों में चर्यापद, वज्रयोगिनी, आराधना विधि आदि प्रमुख है। योगरत्न माला, वसंत तिलक आदि कण्हपा का ग्रंथ है ।
2.नाथ साहित्य
निर्गुण या रूपहीन परमात्मा पर विश्वास कर, हठयोग पर महत्व दिये गये संतों को नाथ कहते हैं । नाथ पंथ के प्रवर्तक आदि नाथ अर्थात शिव माने जाते हैं , जिनके प्रमुख शिष्य के रुप में मत्स्येंद्रनाथ का नाम आता है ।मत्स्येंद्रनाथ के शिष्यों की परंपरा काफी विस्तृत है । किन्तु उनके प्रमुख शिष्य गोरखनाथ थे ।
नाथ संप्रदाय के मार्गदर्शी आचार्य गोरखनाथ हैं । गोपीचंद, भरथरी आदि भी नाथ संप्रदाय के प्रसिद्ध कवि है । नाथ योगियों ने हिन्दु तथा मुसलमान दोनों धर्मों के लोगों को अपने पंथ में शामिल किया ।
नाथ कवियों ने गुरु को बहुत अधिक महत्व दिया है ,तथा उसे ब्रह्म के समान ही माना है ।गोरखनाथ कहते हैं :-
“ नाथ – निरंजन आरती गाऊं ।
गुरु दयाल आख्या जो पाऊं ।। “
3.जैन साहित्य
प्राचीन काल में भारतवर्ष में जैन धर्म का उन्मेष बौद्ध धर्म के उन्मेष के साथ ही हुआ ।
आदिकाल काल के जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य के समान संपन्न है । जैन साहित्य के प्रमुख साहित्यकारों में स्वयंभू का महत्वपूर्ण स्थान है । पउम चरिउ, स्वयंभू छंद तथा रिट्ठणेमि चरिउ आदि उल्लेखनीय है । जैन धर्म का विस्तार देश के पश्चिमी भाग अर्थात राजस्थान, गुजरात आदि तक सीमित रहा ।13 वीं शताब्दी के आसपास जैन कवियों द्वारा रचित अनेक रचनाएं प्राप्त होती हैं ,जिनकी भाषा अपभ्रंश है । जैन कवियों की कृतियां काव्यत्व की दृष्टि से बहुत श्रेष्ठ भले न हों, भाषा का प्रयोग की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं , जिसका एक उदाहरण दृष्टव्य है :-
‘ वज्जिय सरल वियप्पहं परम समाहि लहंति ।
जं विदही साणंदू सो सिव सूक्ख भणंति ।। `
( सकल विकल्पों को त्यागकर जो परम समाधि प्राप्त करते हैं ,और आनंद का अनुभव कराते है ,उन्हें मोक्ष सुख कहते है )
जैन अपभ्रंश साहित्य के प्रमुख कवियों में सबसे महत्वपूर्ण कवि स्वयंभू है ( 8 वीं शती ) ,जिस जैन प्रबन्धात्मक काव्य के प्रथम कवि माने जाते हैं । अपभ्रंश भाषा का वाल्मीकि कहे जानेवाले स्वयंभू कवि की बहुत रचनाऐं उपलब्ध नहीं होती तथा विद्वानों ने पउम चरिउ, स्वयंभू छन्द तथा णयकुमार चरिउ आदि को इनकी रचनाएँ माना है ।
4.रासो साहित्य
हिन्दी के रहस्य शब्द को प्राकृत भाषा में रासो कहते है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मत में रासो शब्द का संबंध रसायन से होता है । श्रृंगार और वीररसयूक्त काव्य रासह या रासो नाम से अभिहित किया जाता है ।
प्रबंध काव्य के रूप में उपलब्ध सबसे प्राचीन ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो है ।
वीरगीत के रूप में उपलब्ध प्राचीन ग्रंथ है, बीसलदेव रासो ।
जगनिक नामक कवि कृत परमाल रासो, शारंग्धर कृत हम्मीर रासो, दलपति विजय का खुमाण रासो आदि प्रमुख रासो साहित्य है ।
पृथ्वीराज रासो, आदि कालीन वीर काव्यों में छन्द वैविध्य परंपरा का श्रेष्ठतम महाकाव्य है ।इसे हिंदी के प्रथम महाकाव्य माना गया है । यह लगभग ढाई हज़ार पृष्ठों का है और इसमें 69 समय (सर्ग ) हैं ।इसके रचयिता दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान के मित्र ,राजकवि एवं सेनापति चन्दपरदाई हैं । इस ग्रंथ की प्रामाणिकता पर हिंदी के विद्वानों के बीच सर्वाधिक बहस हुई है ।चन्दपरदाई की मृत्यु तक यह ग्रंथ पूरा नहीं हुआ था । चन्द के पुत्र जल्हण ने इसे पूरा किया ।
5.चारण साहित्य
चारण साहित्य के संस्थापक के रूप में राजशेखर का महत्वपूर्ण स्थान होता है । चारण साहित्य के ख्याति प्राप्त रचनाकारों में पिंगलाचार्य का नाम विशेष रूप में उल्लेखनीय है ।
स्तोत्र साहित्य के रचयिता पुष्पदन्त, काव्य मीमांसा के लेखक राजशेखर, कथा सरित्सागर के रचयिता सोमदेव आदि के नाम चारण साहित्य में महत्वपूर्ण है ।
6.लौकिक साहित्य
आदिकाल में लौकिक साहित्य की भी रचना हुई ।
“रोला कवी की ढोला मारू रा दूहा”, “बसन्द विलास”, “राउल
वेल”, “उक्ति व्यक्ति प्रकरण”, “वर्ण रत्नाकर”, “अमीर खुसरो की
पहेलियाँ और मुखरियाँ”,” विद्धापती की पदावली” आदि प्रमुख
लौकिक साहित्य हैं ।
Discussion / चर्चा के मुख्य बिंदु
काल-विभाजन की समस्या
आदिकाल की नामकरण की समस्या
रासो साहित्य की विशेषताएं
आदिकालीन प्रमुख कवियॉं ।
Critical Overview / आलोचनात्मक अवलोकन
- वीरता प्रधान रचनाओं की प्रचुरता ।
- हिन्दी साहित्य के प्रथम महाकाव्य पृथ्वीराज रासो ।
- प्रबध एवं मुक्त दोनों रूपों में काव्य रचना की है ।
- डिंगल और पिंगल भाषा का प्रयोग भी किया है ।
Recap / पुनरावृत्ति
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Objective Questions / वस्तुनिष्ट प्रश्न
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Answers / उत्तर
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Assignment / प्रदत्तकार्य
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Self Assesment / आत्म मूल्याकन
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